Tuesday, December 6, 2016

अधूरी कहानी 'कूड़ा' को पड़ने के लिए कई साहित्य प्रेमियो शोभनकर , सुशील, अनुपमा, गुलज़ार , हितेश के अनुरोध पर पूरी कहानी को ब्लॉग पर पोस्ट कर रही हूँ. इस सहयोग एवं प्रेम के लिए धन्यवाद


कूड़ा 

मेरी ये कहानी उन सभी महिलाओं को समर्पित जो मेहनतकश है .....मर्दों से कही ज्यादा मर्द.
जानती हूँ वो नहीं पढ़  पाएंगी इसे ....उनकी किस्मत मैं कहाँ पढाई ...पर शायद वो जो इन पर अत्याचार करती है उनकी पहुँच है मीडिया तक .....उनमे से यदि एक भी बदल जाये तो मैं समझूंगी के मेरी कहानी सफल हुई  .....


अरे मुई बिमला ....कहाँ मर गई 
आई मेमसाहेब----मेमसाहेब की सर्द चीरती चिलाती-चीख सुन बिमला चौंक गई.....कैसी है ये दो नंबर वाली मेमसाहेब एक कप ची की प्याली दे कर सोचती है के बहुते बड़ा अहसान कर दिया ---हम पर...बदले मैं अब रोज से चार गुना कम करवाएगी एक प्याली चाय के ..-----और चाय भी कैसी काला पानी ..दो बूंद दूध डाल दिया मनो भोले शंकर पे जल चढ़ावे बखत डाल देते है ..
हे राम ...मैं भी बे बखत  क्या सोच रही हूँ .....बिमला सोचते हुए उठने लगी ..राम राम अभी तो दो कोठियों का काम पड़ा है -----और कई का कूड़ा उठाना है..
बिमला ----अरे इधर तो आ चाय पि ली हो तो..जरा ककर तो दबा दे और सर मैं भी तेल लगा दे ......आजकल तू बहुत हरामखोरी करती है....अब मेमसाहेब क्या जाने बिमला की व्यथा -------------सोचे जा रही थी और में साहेब की चम्पी भी कर रही थी...
लो ये तो सो गई.....अच्छा तो मैं जाती हूँ....कह कर भागी ...न जाने अब और क्या क्या करवाएगी......
सड़क पार  की और पहुँची बिमला ठेकेदार की कोठी पे... --ठेकेदार जी ने तो एक बड़ा कूड़ाघर बनवाया है घर के बाहर...लोग मंदिर बनावे और ये....
कूड़ा उठाते उठाते सोच रही थी हे प्रभु तेरी लीला ...कितना फर्क है मेरी बस्ती के कूड़े और साहेब के कूड़े मैं.
अंडे के छिलके , गले सड़े मुर्गे की आधी चाबी टांगे, शराब की खली बोतले, केक- पेस्ट्री , न जाने क्या क्या .....टिक्का, चौमिन ....
अरे क्यों न हो आखिर ठेकेदार साहेब रोज रोज किसी न किसी मुर्गे को फांस लाते है पार्टी के लिए ....डेरो खाना बचता है और फ़ेंक देते है कूड़े मैं ..
बिमला को अपने बेटे की यद् आई जो रोज ही मांगता है केक ...माँ हम का भी केक ला दो न.......
अरे मेरी ही गलती है एक दिन इयह से बचा के घर ले गई और तब ही से  मुए उह के मुह को चढ़ गया स्वाद .......
एक बार तो बिमला के मन आया के निकल ले कूड़े से थोडा सा केक बंटू के लिए ........न न खा ले गा रुखी सुखी .
बिमला सोचने लगी एक हमारा कूड़ा है , जी माँ कूड़े के नाम पर चूल्हे की राख........सब्जी के छिलके की भी सब्जी बना लेत है...और नहीं त अपनी बकरी को खिला देते है . पेट भरने को रोटी नहीं है कोड़ा कहाँ से होइब ..
बस्ती मैं सब लोगो का यही हाल है बचन को गला सदा मिटी मैं जो भी मिले खा लेत है बेचारे ,...कूड़ा तो बड़े घरो की मिलकियत है ..
बस्ती में  तो सब्जी वाला भी आता है तो वो सब्जी  भी कूड़ा ही  होती है ...बची. खुची , गली-सड़ी
हाय हाय आज का  हो गया हम का .......इतना काहे सर खपा रहे .........बिमला बुदबुदाई 

अरे अब दागदार साहेब के यहाँ चलते है ....उनका कूड़ा तो उन से भी निराला है....एकदम बिंदास....उह क्या कहत अंजीर , आम्ब सूखे मेवे और उ टमाटर का पानी का पैकेट ,   अरे दागदार साहेब का कूड़ा तो वो वो कही भी मिले तो पहचान लेईब. की इ दागदार जी का कूड़ा है .....अब इतने बरस हो गए बिमला को काम करते की देख कर ही समझ जाती है की किसके घर पार्टी हुई , किसके शादी कि दावत और कौन मनाये है  हॉट जन्मदिन .कूड़ा न हुआ  मा नो अमीरों की जन्मपत्री है. जो सारे राज खोल देता है के किस के क्या चल रहा है. मुर्गा बना शराब आई , शराब आई तो शबाब आया ...सब राज खोल देता है....
और ये कूड़ा ही तो कई बार उसके भी तो लालच का कारण बना है...वो बेटी की शादी के लिए उठा ले गई थी ड़ो नम्बर वाली का चटकनीवाला संदूक और वो बड़े अफसर की बीवी न जाने क्या लगावत है लप्स्टिक , बिंदी,  पुराणी चूडिया...झुमके का जाने का...नाम भी नहीं जानत.......सब ले गए बिटिया के लिए ......
और तो और कूड़ा देख कर बटा देती है की किस के घर का कूड़ा है ------
  , पञ्च साल की थी तो माँ के साथ आने लगी थी ,,,, सोचा था बियाह के बाद छुट जएय्गा पर ......
तब से आज तक उसकी तक़दीर कूड़ा ही बन गई है........
ये साले अमीर लोग भी न कितना खाना बर्बाद करते है . अरे इतने मैं तो हमारे चार घरों का चूल्हा जले .अरे नहीं किसी को दी दे ...और नहीं तो गईया को ही डाल दे बेचारी कूड़े मैं से छिलके छांट कर  खाती है ..और साथ मैं पिलास्टिक भी खा जाती है . ये सेठानी तो देखो दस नंबर वाली सारा दिन चपर चपर खाती रहती है पड़े पड़े फूल के बैंगन हुई गई है ......सारा दिन दागदार के चकर कटत है ...और कहती है हाय मर गई..ये हो गया वो हो गया ......बिमला जरा पैर दबा ,, कमर दबा ..ये कर वो कर...बिमला बुदबुदाते हुए और तेज कदमो से घर को चल पड़ी . रस्ते मैं कूड़ा बीनते बच्चों को देख ठिठक कर रुक गई...कैसे हाथ मैं थैली पिलास्तिक की और कूड़े के देर मैं कुछ छांट रहे थे , कोई खाली  बोतल , कोई प्लास्टिक का सामान , कागज ...........सुख हडियों के दांचे ये काले कलूटे , पथरी आँखों वाले , भरे बल मनो बरसो से ..बरसो क्या कभी न नहाये हो ...
इनके लिए ये कूड़ा ही जीने का साधन है .....यही इनकी रोजी रोटी का जरिया है......इन्हें देख बिमला की आंख भर आई ...हे राम हम तो बहुत ही ठीक है .......काम से काम महीने के हजार पटक देत है ...ये देखो कूड़े के देर पर ही जिन्दगी की गाड़ी ड़ो रहे है. 

ये सोच बिमला ने बचा -खुचा खाने का सामान जो कोठी वालियों ने दिया था उन बच्चो मैं बाँट दिया और चल दी बस्ती की और .........एक शांति का भाव चेहरे पे लिए.............आज वो उन बड़े महलो वालो से कही जयादा अमिर और तृप्त ........