Saturday, December 17, 2011

Muktak


खामोशी गुनगुना उठी 
के शोर लगने लगा 
सन्नाटे इतने गहरे 
के खोफ लगने लगा 
 ज़मीं है या चाँद का अक्स
 कम्बखत इश्क हो गया तुझ से   

Wednesday, August 31, 2011

जरुरत है " स्वंम पाल " बिल की

जन लोक पाल बिल के प्रति आस्था देख कर अच्छा लगा ...........आशा है के जल्दी ही शुरू भी होगा . ये आम आदमी अवं गणतंत्र की बड़ी जीत है . कुछ सवाल छोड़ गया ये आन्दोलन 
क्या ये शुरू होते ही कुछ जादू होगा ? क्या  भ्रष्टाचार जादू की माफिक गायब हो सकेगा ? नहीं ......कोई भी बिल या कानून पूर्णता उस अपराध को दूर नहीं कर पायेगा जब तक के आम जनता की रग में उस कानून को अपनाने और मानने की इच्छा जागृत न हो . 
जी हाँ जरुरत है स्वंम पाल बिल की ..........यानि जनता खुद पर एक नियंत्रण लगाये और ये वादा करे की न क्या  भ्रष्टाचार करेंगे न होने देंगे . 
तो क्या आप टायर है स्वं पाल के लिए ?         आप के जवाब का इंतजार रहेगा ....क्यूँ न एक वादा करे खुद से 

Monday, August 29, 2011

muktak


हुजूम उमड़ पड़ा है तल्खियो का ज़माने में 
हर शख्स खुद से लड़ पड़ा है ज़माने में 
बदली है नीयत हवाए बदल गई  
मुश्किल है रौशनी ढूँढना ज़माने में 

Sunday, August 28, 2011

सपना


रोज  की तरह आज फिर फूलो के बगीचे से गुजरे, तो उन सुर्ख गुलाबो देख एक ख्याल जगा . आँखों में एक चमक उभरी --अरे ये ये फुल कितने ताजगी भरे कितने शोख है और फुल से उसका नक्श उभरने लगा  . हर फुल से धीमा धीमा संगीत गुन्झ रहा था . और अनायास ही हम मुस्कुराने लगे . एक आवाज आई .तोड़ लो न फुल उसके लिए . इस ख्याल से पहले तो हम मुस्काए, फिर शर्माए और फिर घबराये ..के किसी ने देख लिया तो..और लीजिये फुल तोड़ने से पहले ही खयालो में गम हो गए ......और लगे एक सपना देखने ...खुली आँखों से सपना . सपना उस दिन का जब वो हमें फुल देंगे ......उह्ह्ह्हह्ह...कांटा सपना फिर टुटा  .....पर क्या कभी ऐसा होगा ...और होगा तो कब होगा ..जब वो हमें फुल दे ......और उनके फुल देने के अहसास से ही हमें गुदगुदा गया था और हम खो गए फिर सपने में .............गर्र्र्रर्र्र दर्र्रर्र्र ....अरे भाई मरने का इरादा है क्या .......मोटर सयिकिल की आवाज ने  हम चौंका दिया ......और हमने देखा की इस सपने को बुनते बुनते हम पार्क से रोड तक आ चुके थे ....
तभी एक कर्मचारी ने दूसरी महिला कर्मचारी  से कहा एंटी इन्होने तो नई नई  पगड़ी पहनी है ..........अप थक जोगी आराम कर लो ......और मुझे हंसी आ गई क्या ये प्यार भी नया पुराना होता है क्या ........प्यार तो प्यार है ..........
उठो उठो आज कॉलेज नहीं जाना है क्या .................लो  सपना फिर टूट गया था प्यार का ........पर ये सपना भी कितना सुहाना था  झुटा ही सही  टुटा ही सही ...............अहसास तो करा दिया .............

Tuesday, August 23, 2011

कैसे हो गए हम


 हर चीज धुंधली सी है इन दिनों 
अजनबी हवा चली  है इन दिनों 
भूल जाऊ  रहे न  याद कुछ भी 
यारो कुछ दुआ करो इन दिनों
 
चेहरे ही चेहरे कौन है ये लोग 
 पहचाने  नहीं जाते  इन दिनों
 छू कर देखा बदन तो थे 
     मशीन से  इन्सां है इन दिनों 
 
   
        सुना था के नश्वर है वो  
        फिर  कहाँ है वो  इन दिनों 
        डर गई है नए आलम  से या फिर 
            आत्मा भी मरने लगी है इन दिनों  
 

muktak


ये कोरा पन्ना न जाने कितनी बार पढ़ते है
देखने वाले पागल समझते है
वो क्या जाने इसकी गहराई का आलम
हर बार नए राज,नए अल्फाज उभरते है

Saturday, August 6, 2011

muktak


हर चीज धुंधली सी है इन दिनों
अजनबी हवा चली  है इन दिनों
भूल जाऊ  रहे न  याद कुछ भी
यारो कुछ दुआ करो इन दिनों

Monday, April 18, 2011

एक गीत


गुच्छे घटाओं के छाने लगे
के बीते दिन याद आने लगे  
       मेले अकेले  लगाने लगे 
       के सोये अरमान जगाने लगे 
    

कही कुछ अनकही सी कहानी 
तस्वुर वही फिर से  आने लगे 
सुलगते सिसकते वो दागे-ए- मुहोबत 
के रिसने लगे करहाने लगे 

पपीहे वीणा बजाने लगे
        पते भी ताने सुनाने लगे 
        नाचन लगे मोर सुर ताल में  
        के भवरे नगाड़े बजाने लगे 
 
  तन्हाईया रास  आने लगी 
        अंगड़ाईया गुनगुनाने लगी 
 लड़कपन हमारा जफ़ाए तुम्हारी 
लबो पे वही गीत लाने लगी  

बहकते बदन की  महकती खुशबु 
आँचल हमारा उड़ाने लगे 
जुगनू नहाये हुए चांदनी में
दर्पण पुराने दिखाने लगे 

मनाते है खुद रूठ जाते है यु ही 
मचलते है खुद को सताने लगे 
भरी दोपहरी, रातो में युही 
 कोठे के  चकर लगाने लगे 

muktak

तुम हवा के झोके से  रुख  बदल लेते 
मैं नदी सी रास्ते बदलती नहीं खुद बनाती हूँ 
तुम बादल से चंचल उड़ते डोलते बरसते 
मैं धरा सी अडिग अचल गहन धर्य  विश्वास दिलाती हूँ 

Monday, April 4, 2011

एक गीत

'आत्मा की पुकार'       

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 

खामोश शाम
 बोझिल सवेरा 
बुझते दिए का
 ढलता सुनहरा
परछाई सी सिसकती हूँ 

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 

आते जाते 
दीवारों पे
रस्ते-रस्ते 
गलियारों में 
उसका नाम खुरचती हूँ 

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 

कान्हा तो संग 
खेरू होरी 
नेह तेरे सो 
देह भिगो ली 
मन का मनका जप्ती हूँ 

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 
 


 

Monday, February 28, 2011

Read complete story 'kuda'


अरे मुई बिमला ....कहाँ मर गई 
आई मेमसाहेब----मेमसाहेब की सर्द चीरती चिलाती-चीख सुन बिमला चौंक गई.....कैसी है ये दो नंबर वाली मेमसाहेब एक कप ची की प्याली दे कर सोचती है के बहुते बड़ा अहसान कर दिया ---हम पर...बदले मैं अब रोज से चार गुना कम करवाएगी एक प्याली चाय के ..-----और चाय भी कैसी काला पानी ..दो बूंद दूध डाल दिया मनो भोले शंकर पे जल चढ़ावे बखत डाल देते है ..
हे राम ...मैं भी बे बखत  क्या सोच रही हूँ .....बिमला सोचते हुए उठने लगी ..राम राम अभी तो दो कोठियों का काम पड़ा है -----और कई का कूड़ा उठाना है..
बिमला ----अरे इधर तो आ चाय पि ली हो तो..जरा ककर तो दबा दे और सर मैं भी तेल लगा दे ......आजकल तू बहुत हरामखोरी करती है....अब मेमसाहेब क्या जाने बिमला की व्यथा -------------सोचे जा रही थी और में साहेब की चम्पी भी कर रही थी...
लो ये तो सो गई.....अच्छा तो मैं जाती हूँ....कह कर भागी ...न जाने अब और क्या क्या करवाएगी......
सड़क पार  की और पहुँची बिमला ठेकेदार की कोठी पे... --ठेकेदार जी ने तो एक बड़ा कूड़ाघर बनवाया है घर के बाहर...लोग मंदिर बनावे और ये....
कूड़ा उठाते उठाते सोच रही थी हे प्रभु तेरी लीला ...कितना फर्क है मेरी बस्ती के कूड़े और साहेब के कूड़े मैं.
अंडे के छिलके , गले सड़े मुर्गे की आधी चाबी टांगे, शराब की खली बोतले, केक- पेस्ट्री , न जाने क्या क्या .....टिक्का, चौमिन ....
अरे क्यों न हो आखिर ठेकेदार साहेब रोज रोज किसी न किसी मुर्गे को फांस लाते है पार्टी के लिए ....डेरो खाना बचता है और फ़ेंक देते है कूड़े मैं ..
बिमला को अपने बेटे की यद् आई जो रोज ही मांगता है केक ...माँ हम का भी केक ला दो न.......
अरे मेरी ही गलती है एक दिन इयह से बचा के घर ले गई और तब ही से  मुए उह के मुह को चढ़ गया स्वाद .......
एक बार तो बिमला के मन आया के निकल ले कूड़े से थोडा सा केक बंटू के लिए ........न न खा ले गा रुखी सुखी .
बिमला सोचने लगी एक हमारा कूड़ा है , जी माँ कूड़े के नाम पर चूल्हे की राख........सब्जी के छिलके की भी सब्जी बना लेत है...और नहीं त अपनी बकरी को खिला देते है . पेट भरने को रोटी नहीं है कोड़ा कहाँ से होइब ..
बस्ती मैं सब लोगो का यही हाल है बचन को गला सडा  मिटी मैं जो भी मिले खा लेत है बेचारे ,...कूड़ा तो बड़े घरो की मिलकियत है ..
बस्ती मैं तो सब्जी वाला भी आता है तो वो भी कूड़ा होती है ...बची. खुची , गली-सड़ी
हाय हाय आज क हो गया हम का .......इतना काहे सर खपा रहे .........
अरे अब दागदार साहेब के यहाँ चलते है ....उनका कूड़ा तो उन से भी निराला है....एकदम बिंदास....उह क्या कहत अंजीर , आम्ब सूखे मेवे और उ टमाटर का पानी का पैकेट ,   अरे दागदार साहेब का कूड़ा तो वो वो कही भी मिले तो पहचान लेईब. की इ दागदार जी का कूड़ा है .....अब इतने बरस हो गए बिमला को काम करते की देख कर ही समझ जाट है की किसके घर पार्टी हुई , किसके शादी कि दावत और कौन मन्ये हॉट जन्मदिन .कूड़ा न हुआ मनो अमीरों की जन्मपत्री है. जो सारे राज खोल देता है के किस के क्या चल रहा है. मुर्गा बना शराब आई , शराब आई तो शबाब आया ...सब राज खोल देता है....
और ये कूड़ा ही तो कई बार उसके भी तो लालच का कारण बना है...वो बेटी की शादी के लिए उठा ले गई थी ड़ो नम्बर वाली का चटकनीवाला संदूक और वो बड़े अफसर की बीवी न जाने क्या लगावत है लप्स्टिक , बिंदी,  पुराणी चूडिया...झुमके का जाने का...नाम भी नहीं जानत.......सब ले गए बिटिया के लिए ......
और तो और कूड़ा देख कर बता  देती है की किस के घर का कूड़ा है ------
  , पञ्च साल की थी तो माँ के साथ आने लगी थी ,,,, सोचा था बियाह के बाद छुट जएय्गा पर ......
तब से आज तक उसकी तक़दीर कूड़ा ही बन गई है........
ये साले अमीर लोग भी न कितना खाना बर्बाद करते है . अरे इतने मैं तो हमारे चार घरों का चूल्हा जले .अरे नहीं किसी को दी दे ...और नहीं तो गईया को ही डाल दे बेचारी कूड़े मैं से छिलके छांट कर  खाती है ..और साथ मैं पिलास्टिक भी खा जाती है . ये सेठानी तो देखो दस नंबर वाली सारा दिन चपर चपर खाती रहती है पड़े पड़े फूल के बैंगन हुई गई है ......सारा दिन दागदार के चकर कटत है ...और कहती है हाय मर गई..ये हो गया वो हो गया ......बिमला जरा पैर दबा ,, कमर दबा ..ये कर वो मर...बिमला बुदबुदाते हुए और तेज कदमो से घर को चल पड़ी . रस्ते मैं कूड़ा बीनते बच्चों को देख ठिठक कर रुक गई...कैसे हाथ मैं थैली पिलास्तिक की और कूड़े के देर मैं कुछ छांट रहे थे , कोई खाली  बोतल , कोई प्लास्टिक का सामान , कागज ...........सुख हडियों के दांचे ये काले कलूटे , पथराइ  आँखों वाले , उलझे हुए साधूओ के जटाओं वाले बाल माँनो बरसो से ..बरसो क्या कभी न नहाये हो ......ये तो खुद बेचारे कूड़ा है इस दुनिया के लिए 
इनके लिए ये कूड़ा ही जीने का साधन है .....यही इनकी रोजी रोटी का जरिया है......इन्हें देख बिमला की आंख भर आई ...हे राम हम तो बहुत ही ठीक है .......कम  से कम महीने के हजार पटक देत है ...ये देखो कूड़े के  डेर पर ही जिन्दगी की गाड़ी ड़ो रहे है. 
ये सोच बिमला ने बचा -खुचा खाने का सामान जो कोठी वालियों ने दिया था उन बच्चो मैं बाँट दिया और चल दी बस्ती की और .........एक शांति का भाव चेहरे पे लिए.............आज वो उन बड़े महलो वालो से कही जयादा आमिर और तृप्त .............


Monday, February 21, 2011

कूड़ा

कूड़ा 

मेरी ये कहानी उन सभी महिलाओं को समर्पित जो मेहनतकश है .....मर्दों से कही ज्यादा मर्द.
जानती हूँ वो नहीं पढ़  पाएंगी इसे ....उनकी किस्मत मैं कहाँ पढाई ...पर शायद वो जो इन पर अत्याचार करती है उनकी पहुँच है मीडिया तक .....उनमे से यदि एक भी बदल जाये तो मैं समझूंगी के मेरी कहानी सफल हुई  .....


अरे मुई बिमला ....कहाँ मर गई 
आई मेमसाहेब----मेमसाहेब की सर्द चीरती चिलाती-चीख सुन बिमला चौंक गई.....कैसी है ये दो नंबर वाली मेमसाहेब एक कप ची की प्याली दे कर सोचती है के बहुते बड़ा अहसान कर दिया ---हम पर...बदले मैं अब रोज से चार गुना कम करवाएगी एक प्याली चाय के ..-----और चाय भी कैसी काला पानी ..दो बूंद दूध डाल दिया मनो भोले शंकर पे जल चढ़ावे बखत डाल देते है ..
हे राम ...मैं भी बे बखत  क्या सोच रही हूँ .....बिमला सोचते हुए उठने लगी ..राम राम अभी तो दो कोठियों का काम पड़ा है -----और कई का कूड़ा उठाना है..
बिमला ----अरे इधर तो आ चाय पि ली हो तो..जरा ककर तो दबा दे और सर मैं भी तेल लगा दे ......आजकल तू बहुत हरामखोरी करती है....अब मेमसाहेब क्या जाने बिमला की व्यथा -------------


अगर पूरी कहानी पढ़ना  चाहते है तो कृपया मेल करे ----

 

बंधन

        बंधन 


काश मैं बन जाती पाखी 
नीले नभ को छू आती 

१. न होता यादों का बंधन 
न भय बिछोह का क्रंदन 
उन्मुक्त फजाओं मैं 
मैं गीत प्यार के गाती 

काश मैं ------- नभ को छू आती 

२. मोह माया न लाज के कंगन 
प्रेम प्रीत न रीत की उलझन 
सावन के घोर घटायें 
न मुझ को यूँ तडपाती

काश ------नीले नभ को छू आती 

३. सतरंगी इंद्र-धनुष पे होता रैन-बसेरा 
 सीमाओं मैं बटा न होता घर-आंगन मेरा
स्वप्नीली पलकों मैं भर खुशियाँ 
चहुँ-दिशा इठलाती, गीत प्रेम के गाती 

काश---नीले नभ को छू आती

४. सारा जग होता मेरा 
न होता कोई पराया 
कभी गगन मैं कभी धरा पे 
अल्हड सपने बुन आती 

काश -----नीले नभ को छू आती 

मधु दीप सिंह  

Sunday, February 20, 2011

फिल्मे और रियलिटी शो बने भाषा के दुश्मन





पापा क्या हो जाएगा .............? बताओ न पापा क्या हो जाता...............?





दो घंटे तीस मिनट में धड़ाधड लगभग ३६ गालिया यानि हर सीन मैं अपशब्दों  का पर्योग 

रानी मुखर्जी द्वारा बोली गई गाली......तुम वहां होते तो...............? सिनेमा घर में तीन बार छोटी बच्ची ने बार बार अपने मातापिता से पूछा क्या फट जाती ?

न केवल मातापिता अपितु वहां बठे आस पास के लोगो भी इस प्रशन से झेंप गए . मातापिता को तो सूझ ही नहीं रहा था क्या जवाब दे. और ये गालिया कोई नेगटिव चरित्र नहीं बोल रहा था अपितु फिल्म के  मुख्य कलाकारों  द्वारा बोली गई थी . जब स्थापित पहचान वाले कलाकार भी इस तरह के दबाव का शिकार है तो नए कलाकारों की तो ओकात ही क्या है. या फिर ये अपशब्द सभ्य कहलाने वाले लोगो की भाषा या बोलचाल का हिस्सा बन चुके है और यदि नहीं बने है तो इस तरह बार बार फिल्मो में बोल कर आम भाषा का हिस्सा बना दिए जाएँगे. समाज में आम बोलचाल की भाषा का ये शब्द हिस्सा नहीं थे. और यदि कभी कभार  साला, कमीना या हरामी जैसे शब्दों को बोला भी जाता था तो वह भी कुछ खास परिस्थितियों में. जैसे की गुस्से में आप खो देने पर गाली  मुह से निकल गई या फिर किसी अत्यंत कट्टर दुश्मन के लिए. और वो भी कुछ पुरुष वर्ग के द्वारा. और इनको बोलना बहुत ही असभ्य आचरण का प्रतिक  माना जाता था . 

आम बोलचाल में और वो भी महिलाओ द्वारा इस प्रकार का एक्स्प्रसन  आमतोर पर  देखने को नहीं मिलता और वो सामाजिक समूहों या व्यवसायिक जगहों पर तो कतई नहीं . यदि पुरुष वर्ग या निचले तबके का वर्ग भी गालियों का प्रयोग करता है तो वह भी सामाजिक परिसिथ्तियो के अनुसार अपने शब्दों का चुनाव करता है . और बच्चो  , महिलायों व् बुजुर्गो का ख्याल रखता है.  परन्तु मिडिया में पिछले कुछ वर्षो से भाषा में अपशब्दों का पर्योग बढता जा रहा है . यदपि पहले भी फिल्मो में गालियों का प्रयोग किया जाता था परन्तु बहुत कम या न के बराबर ही होता था. यदि बोली भी जाती थी तो विलेन का किरदार के द्वारा ही कभी कभार इस प्रकार के वाक्य बोले जाते थे. और कहानी एवम चरित्र के अनुसार ही इस तरह के अपशब्दों का प्रयोग करवाया जाता था. वहां भी गालिया का भंडार न होकर कुछ एक आध सीन में ही ऐसे शब्दों का प्रयोग होता था. 

यदि हम पिछले बरसो के इतिहास पर नजर डाले तो बहुत कम ऐसी फिल्मे है जिन में भधी गालियों का प्रयोग हुआ है. परन्तु इस दशक की फिल्मो में तो भ्होंडी गलियों का मानो का चलन  बढ़ता ही जा रहा है. ओंकारा, वंस  उपों इन मुंबई , नोक आउट , पिपली लाइव , आदि  .....फिल्मो की एक लम्बी सूचि है. भद्धि गालियों की संख्या और उनका प्रयोग दिन पे दिन बढता ही जा रहा है . 
गालियों की बढती संख्या से खतरनाक यह है की भद्दे शब्दों का प्रयोग उन मुख्य  किरदारों द्वारा दिखाया जाता है जिनकी छवि आम लोगो के जीवन में एक महतवपूर्ण भूमिका रखती है . खास कर युवा पीढ़ी के लोग तो फिल्म के इन कलाकारों को अपना  आदर्श मानते . कपडे, जूते, खान-पान से लेकर वो इन आदर्शो की भाषा से अत्यंत प्रभावित रहते है. न केवल प्रभावित रहते है बल्कि उसे हुबहू अपनाने की कोशिश भी करते है. रानी मुखर्जी, सैफ अली, अजय देवगन, करीना आदि आज के मुख्य सितारे है. यदि इनके वव्हार व् भाषा द्वारा इस तरह का पर्स्तुतिकरण दिया जाता है वह समाज के एक बहुत बड़े युवा वर्ग को प्रभावित करता है एवं युवा  वर्ग की एक आम धारणा  बनती है की इस प्रकार  की भाषा का इस्तेमाल कोई बुरी बात नहीं है और  धीरे धीरे इस गलत व् भधी भाषा का धीमा जहर पूरी  युव पीढ़ी को जकड लेगा. कोई भी गलत कम यदि मीडिया द्वारा बार बार दिखाया जाता है तो वह समाज में स्थापित होंने  लगता है, और धीरे धीरे हमारी संस्कृति का हिस्सा बन जाता है. 
न केवल फिल्मे अपितु हमारा छोटा पर्दा यानि टेलीविजन भी इस समस्या का शिकार है. ज्यादातर रिअलिटी कार्यकर्मो में खासकर एम् टी वी , वी टी वी, या फिर यु बिंदास इन सभी पर युवा वर्ग के लिए खास कार्यकर्मो को दिखाया जाता है. इन रिअलिटी कार्यकर्मो में युवा कलाकारों और भागीदारो के द्वारा बोलचाल में बार बार अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता है की पूरा परिवार यदि एक साथ बता हो तो शरम से पानी पानी हो जाएँ . इन कार्यकर्मो का दर्शक एक  बढा वर्ग युवा है और कही न कही उस पर ये दबाव और उस की ये मानसिकता बनती  जा रही है की modren होने का अर्थ है भाषा में गलियों का इस्तेमाल . फैशनबल और पड़े लिखे दिखने वाले ये कलाकार या चंद फूहड़ रिअलिटी कार्यकर्मो के पर्तिभागी मीडिया में इस तरह प्रस्तुत किये जाते है जैसे की पूरा युवा वर्ग ही ऐसा है.

जबकि वास्तविकता एसी नहीं है . आज का युवा बहुत ही समझदार एवम बुद्धिमान है और उनको यदि सही दशा दिखाई जाये तो वह देश एवम समाज के लिए बहुत कुछ अच्छा कर सकते है. परन्तु मीडिया उस युवा को ऐसी भ्रमित और काल्पनिक परिस्थितयो से परिचित करवा रहा है जो युवा वर्ग के लिए और समाज के लिए हानिकारक है. हाँ मार्केट के लिए जरूर लाभदायक हो सकती है

इसके साथ ही एक सवाल और उठता है की क्या ये गालिया न हो तो फिल्मे हित नहीं होगी? या नंबर वन कहलाने वाले इन  कलाकारों में इतना दम नहीं रहा की बिना गालियों के इनकी फिल्मो को दर्शक नकार देगा? और गालिया दर्शको को फिल्मो तक ले जाने के लिए आवशयक हो गई है. अगर एसा है तो तारे जमीं पर, थ्री इदिट्स, पा या गुजारिश जसी फिल्मे दर्शको को क्यों पसंद आती है? इन सवालों के जवाब खोजना  अति आवश्यक है . क्या नो वन किल्ड जेसिका में गालिया नहीं बोली जाती तो फिल्म या उसकी कहानी पर कोई असर पड़ता ? शायद नहीं . मीडिया के साथ साथ सेंसर बोर्ड की भूमिका पर भी सवाल उठता है . यदि सेंसर बोर्ड अपनी  भूमिका व् दायित्वों के प्रति आँख मुंद कर बैठ गया है . रिअलिटी दिखाने के नाम पर कुछ भी दिखा सकता है. यदि सेंसर बोर्ड अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा रहा तो उसे ख़तम कर देना चाहिए . कम से कम एक बड़ा बज़ट तो सर्कार का बचेगा . और छोड़ देना चाहिए प्रोडूसरो पर व् मार्केट पर जो चाहे वो दिखाए और प्रस्तुत करे. समाज का क्या होगा ये समाज जाने और युवा पीडी का क्या होगा युवा जाने.............






परियो का घर





क्या तुम ने परियो का घर देखा है ----नहीं ना 
हाँ कहानी तो बहुत सुनी होगी परियो की . पर आज मैंने परियो का घर देखा. जनवरी की सदियों की सुबह ५. ३० , कड़ाके की ठण्ड और घना कोहरा.....ओह ह़ो अभी तक झुरझुरी छुट रही है .
धुंधला धुंधला --धुला धुला सवेरा चारो  तरफ एक अजीब सी खुशबू, हलकी हलकी गोल- गोल डिम लाइट्स की रौशनी और रात का अँधेरा एक अजीब सा combination बना रहे थे . जैसे किसी और ही दुनिया मैं थी मैं . लम्बे लम्बे पेढ़ इस परियो के घर की रखवाली कर रहे थे . भीनी भीनी सुघन्ध मदहोश बना रही थी . दूर दूर तक कुछ नजर नहीं आ रहा था . ख़ामोशी इतनी के अपनी सांसे भी दिल धड़का रही थी. चाँद सोने से पहले अपनी खुमारी मैं था और इतना मद्धम मद्धम महक रहा था और इतना करीब के हाथ खुद बी खुद बढ़ गया छुने को . ये सच था या सपना इतना नजदीक चाँद पर जैसे ही हाथ बढ़ाओ तो गायब . और ये टिमटिमाते तारे देखो तो कितने पास कितने साफ , कितने शांत. पर आज ये आसमान  मैं तो नहीं लग रहे . तो क्या ये परियों का रैन बसेरा तो नहीं .   

गूगले गूगले कोहरे  की सफेदी थी या रुई की चादर या फिर परियो के लिबास .  इतनी पुर सुकून सफ़ेद चादर कोहरे की नाच रही थी चारो और के कुछ दिखे कही तो लगे के कोई फ़रिश्ता है. लपक झपक कोहरे को मुठी मैं पकड़ने की कोशिश कर रही थी. पर नाकामयाब , ये तो जादू की नगरी है  आगे आगे तो इतना घना सफ़ेद के मैं खुद ही गायब ह़ो गई उसमें. इधर उधर भाग रही थी पर नहीं, कोई रास्ता ही नहीं था. ऐसा लगा के स्वर्ग मैं मैं हूं और आकाश मैं तैर  रही हूं उढ़ रही हूं. नाच रही हूं गा रही  हूं , पर ये मदहोश कर देने वाली खुशबू कहाँ से आ रही है . नजर तो कुछ आ नहीं रहा . इतना सुकून इतना सुंदर नजारा क्या ये धरती पर हूं मैं या कही,        और हाँ शायद परिओं के देश मैं हूं.....
हाँ ये परियो का घर ही लगता है. ना कोई शोर , ना डर , ना विचार बस   सिर्फ एक शुन्य , एक शांति , ......अथाह गहरी ख़ामोशी , रूह को पवित्र कर देने वाली एक जगह . एक पल मैं कई जीवन जीने का अनुभव .............
ची चिक च्सिक ह्ह्सिह्क  ......खुमारी के संसार से  पक्षियों  की चहचहाट ने जगा दिया .. अरे ये तो रोज गार्डेन मैं हूं मैं ........इतना खुबसूरत नजारा नहीं देखा था मैंने ........वाकई ये परियो का घर  घूम आई थी मैं 

Save nature

1. पेड़  कहाँ कुछ लेते है
ये तो बस सब देते है
मानव बस एक  बेचारा 
सब के आगे हाथ पसारा 

2. इसको चाहे सब मिल जाये 
और और की रट ये लगाये
 मन इसका  है गहरा  कुआँ 
जितना डालो छु मंतर हुआ  

3. सूरज से ये मांगे रौशनी 
 चले हवा से इसकी धोंकनी 
पेड़ो काट किया जंगल नंगा 
फिर कहे मैली हो गई गंगा 

4. खोद खोद धरती की परते 
हीरे मोती से जेभे भरते 
असमान पे जगह बना ली 
झोली इसकी फिर भी खाली 

5. कंद मूल से पेट न भरता
इसको चहिये मास का भरता 
पिंजरे मैं बंद कर दी चिड़िया  
कौन खेवे इन्सान तेरी नैया 

6. देख तमाशा बैठ के भैया 
डूबे सूरज, धरती बने तलैया 
तेरी नहीं अब चलने वाली 
रात नहीं अब ढलने वाली 

7. जाग  अभी भी होश में आ 
हरयाली  को गले लगा 
नदियों का तू बन रखवाला
प्रेम प्यार से भर ले प्याला 
8. क्यों धरती पे जुल्म तू ढाए
निर्जीवो को  काहे सताए 
साथ न भइया कुछ जावेगा 
सब कुछ यही पे रह जावेगा 

9. जंगल नदिया पेड़ और पौधे 
तारे तितली ताल और तोते 
जंतु पक्षी शेर और हाथी
ये सब तेरे असली  साथी

10. जल जननी और जवाहर  
मिटी वायु और समंदर 
मत कर इनकी तू बर्बादी 
न कर इतनी आप धापी 

11. विविधता धरती की बचा ले
आज से इनको गले लगाले 
थोड़े से तू कम चला ले 
मानव धरम फिर से अपना ले