Monday, April 4, 2011

एक गीत

'आत्मा की पुकार'       

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 

खामोश शाम
 बोझिल सवेरा 
बुझते दिए का
 ढलता सुनहरा
परछाई सी सिसकती हूँ 

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 

आते जाते 
दीवारों पे
रस्ते-रस्ते 
गलियारों में 
उसका नाम खुरचती हूँ 

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 

कान्हा तो संग 
खेरू होरी 
नेह तेरे सो 
देह भिगो ली 
मन का मनका जप्ती हूँ 

खुद से बाते करती हूँ 
गिरती और सभलती हूँ 
 


 

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