Sunday, February 20, 2011

परियो का घर





क्या तुम ने परियो का घर देखा है ----नहीं ना 
हाँ कहानी तो बहुत सुनी होगी परियो की . पर आज मैंने परियो का घर देखा. जनवरी की सदियों की सुबह ५. ३० , कड़ाके की ठण्ड और घना कोहरा.....ओह ह़ो अभी तक झुरझुरी छुट रही है .
धुंधला धुंधला --धुला धुला सवेरा चारो  तरफ एक अजीब सी खुशबू, हलकी हलकी गोल- गोल डिम लाइट्स की रौशनी और रात का अँधेरा एक अजीब सा combination बना रहे थे . जैसे किसी और ही दुनिया मैं थी मैं . लम्बे लम्बे पेढ़ इस परियो के घर की रखवाली कर रहे थे . भीनी भीनी सुघन्ध मदहोश बना रही थी . दूर दूर तक कुछ नजर नहीं आ रहा था . ख़ामोशी इतनी के अपनी सांसे भी दिल धड़का रही थी. चाँद सोने से पहले अपनी खुमारी मैं था और इतना मद्धम मद्धम महक रहा था और इतना करीब के हाथ खुद बी खुद बढ़ गया छुने को . ये सच था या सपना इतना नजदीक चाँद पर जैसे ही हाथ बढ़ाओ तो गायब . और ये टिमटिमाते तारे देखो तो कितने पास कितने साफ , कितने शांत. पर आज ये आसमान  मैं तो नहीं लग रहे . तो क्या ये परियों का रैन बसेरा तो नहीं .   

गूगले गूगले कोहरे  की सफेदी थी या रुई की चादर या फिर परियो के लिबास .  इतनी पुर सुकून सफ़ेद चादर कोहरे की नाच रही थी चारो और के कुछ दिखे कही तो लगे के कोई फ़रिश्ता है. लपक झपक कोहरे को मुठी मैं पकड़ने की कोशिश कर रही थी. पर नाकामयाब , ये तो जादू की नगरी है  आगे आगे तो इतना घना सफ़ेद के मैं खुद ही गायब ह़ो गई उसमें. इधर उधर भाग रही थी पर नहीं, कोई रास्ता ही नहीं था. ऐसा लगा के स्वर्ग मैं मैं हूं और आकाश मैं तैर  रही हूं उढ़ रही हूं. नाच रही हूं गा रही  हूं , पर ये मदहोश कर देने वाली खुशबू कहाँ से आ रही है . नजर तो कुछ आ नहीं रहा . इतना सुकून इतना सुंदर नजारा क्या ये धरती पर हूं मैं या कही,        और हाँ शायद परिओं के देश मैं हूं.....
हाँ ये परियो का घर ही लगता है. ना कोई शोर , ना डर , ना विचार बस   सिर्फ एक शुन्य , एक शांति , ......अथाह गहरी ख़ामोशी , रूह को पवित्र कर देने वाली एक जगह . एक पल मैं कई जीवन जीने का अनुभव .............
ची चिक च्सिक ह्ह्सिह्क  ......खुमारी के संसार से  पक्षियों  की चहचहाट ने जगा दिया .. अरे ये तो रोज गार्डेन मैं हूं मैं ........इतना खुबसूरत नजारा नहीं देखा था मैंने ........वाकई ये परियो का घर  घूम आई थी मैं 

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