Sunday, February 20, 2011

फिल्मे और रियलिटी शो बने भाषा के दुश्मन





पापा क्या हो जाएगा .............? बताओ न पापा क्या हो जाता...............?





दो घंटे तीस मिनट में धड़ाधड लगभग ३६ गालिया यानि हर सीन मैं अपशब्दों  का पर्योग 

रानी मुखर्जी द्वारा बोली गई गाली......तुम वहां होते तो...............? सिनेमा घर में तीन बार छोटी बच्ची ने बार बार अपने मातापिता से पूछा क्या फट जाती ?

न केवल मातापिता अपितु वहां बठे आस पास के लोगो भी इस प्रशन से झेंप गए . मातापिता को तो सूझ ही नहीं रहा था क्या जवाब दे. और ये गालिया कोई नेगटिव चरित्र नहीं बोल रहा था अपितु फिल्म के  मुख्य कलाकारों  द्वारा बोली गई थी . जब स्थापित पहचान वाले कलाकार भी इस तरह के दबाव का शिकार है तो नए कलाकारों की तो ओकात ही क्या है. या फिर ये अपशब्द सभ्य कहलाने वाले लोगो की भाषा या बोलचाल का हिस्सा बन चुके है और यदि नहीं बने है तो इस तरह बार बार फिल्मो में बोल कर आम भाषा का हिस्सा बना दिए जाएँगे. समाज में आम बोलचाल की भाषा का ये शब्द हिस्सा नहीं थे. और यदि कभी कभार  साला, कमीना या हरामी जैसे शब्दों को बोला भी जाता था तो वह भी कुछ खास परिस्थितियों में. जैसे की गुस्से में आप खो देने पर गाली  मुह से निकल गई या फिर किसी अत्यंत कट्टर दुश्मन के लिए. और वो भी कुछ पुरुष वर्ग के द्वारा. और इनको बोलना बहुत ही असभ्य आचरण का प्रतिक  माना जाता था . 

आम बोलचाल में और वो भी महिलाओ द्वारा इस प्रकार का एक्स्प्रसन  आमतोर पर  देखने को नहीं मिलता और वो सामाजिक समूहों या व्यवसायिक जगहों पर तो कतई नहीं . यदि पुरुष वर्ग या निचले तबके का वर्ग भी गालियों का प्रयोग करता है तो वह भी सामाजिक परिसिथ्तियो के अनुसार अपने शब्दों का चुनाव करता है . और बच्चो  , महिलायों व् बुजुर्गो का ख्याल रखता है.  परन्तु मिडिया में पिछले कुछ वर्षो से भाषा में अपशब्दों का पर्योग बढता जा रहा है . यदपि पहले भी फिल्मो में गालियों का प्रयोग किया जाता था परन्तु बहुत कम या न के बराबर ही होता था. यदि बोली भी जाती थी तो विलेन का किरदार के द्वारा ही कभी कभार इस प्रकार के वाक्य बोले जाते थे. और कहानी एवम चरित्र के अनुसार ही इस तरह के अपशब्दों का प्रयोग करवाया जाता था. वहां भी गालिया का भंडार न होकर कुछ एक आध सीन में ही ऐसे शब्दों का प्रयोग होता था. 

यदि हम पिछले बरसो के इतिहास पर नजर डाले तो बहुत कम ऐसी फिल्मे है जिन में भधी गालियों का प्रयोग हुआ है. परन्तु इस दशक की फिल्मो में तो भ्होंडी गलियों का मानो का चलन  बढ़ता ही जा रहा है. ओंकारा, वंस  उपों इन मुंबई , नोक आउट , पिपली लाइव , आदि  .....फिल्मो की एक लम्बी सूचि है. भद्धि गालियों की संख्या और उनका प्रयोग दिन पे दिन बढता ही जा रहा है . 
गालियों की बढती संख्या से खतरनाक यह है की भद्दे शब्दों का प्रयोग उन मुख्य  किरदारों द्वारा दिखाया जाता है जिनकी छवि आम लोगो के जीवन में एक महतवपूर्ण भूमिका रखती है . खास कर युवा पीढ़ी के लोग तो फिल्म के इन कलाकारों को अपना  आदर्श मानते . कपडे, जूते, खान-पान से लेकर वो इन आदर्शो की भाषा से अत्यंत प्रभावित रहते है. न केवल प्रभावित रहते है बल्कि उसे हुबहू अपनाने की कोशिश भी करते है. रानी मुखर्जी, सैफ अली, अजय देवगन, करीना आदि आज के मुख्य सितारे है. यदि इनके वव्हार व् भाषा द्वारा इस तरह का पर्स्तुतिकरण दिया जाता है वह समाज के एक बहुत बड़े युवा वर्ग को प्रभावित करता है एवं युवा  वर्ग की एक आम धारणा  बनती है की इस प्रकार  की भाषा का इस्तेमाल कोई बुरी बात नहीं है और  धीरे धीरे इस गलत व् भधी भाषा का धीमा जहर पूरी  युव पीढ़ी को जकड लेगा. कोई भी गलत कम यदि मीडिया द्वारा बार बार दिखाया जाता है तो वह समाज में स्थापित होंने  लगता है, और धीरे धीरे हमारी संस्कृति का हिस्सा बन जाता है. 
न केवल फिल्मे अपितु हमारा छोटा पर्दा यानि टेलीविजन भी इस समस्या का शिकार है. ज्यादातर रिअलिटी कार्यकर्मो में खासकर एम् टी वी , वी टी वी, या फिर यु बिंदास इन सभी पर युवा वर्ग के लिए खास कार्यकर्मो को दिखाया जाता है. इन रिअलिटी कार्यकर्मो में युवा कलाकारों और भागीदारो के द्वारा बोलचाल में बार बार अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया जाता है की पूरा परिवार यदि एक साथ बता हो तो शरम से पानी पानी हो जाएँ . इन कार्यकर्मो का दर्शक एक  बढा वर्ग युवा है और कही न कही उस पर ये दबाव और उस की ये मानसिकता बनती  जा रही है की modren होने का अर्थ है भाषा में गलियों का इस्तेमाल . फैशनबल और पड़े लिखे दिखने वाले ये कलाकार या चंद फूहड़ रिअलिटी कार्यकर्मो के पर्तिभागी मीडिया में इस तरह प्रस्तुत किये जाते है जैसे की पूरा युवा वर्ग ही ऐसा है.

जबकि वास्तविकता एसी नहीं है . आज का युवा बहुत ही समझदार एवम बुद्धिमान है और उनको यदि सही दशा दिखाई जाये तो वह देश एवम समाज के लिए बहुत कुछ अच्छा कर सकते है. परन्तु मीडिया उस युवा को ऐसी भ्रमित और काल्पनिक परिस्थितयो से परिचित करवा रहा है जो युवा वर्ग के लिए और समाज के लिए हानिकारक है. हाँ मार्केट के लिए जरूर लाभदायक हो सकती है

इसके साथ ही एक सवाल और उठता है की क्या ये गालिया न हो तो फिल्मे हित नहीं होगी? या नंबर वन कहलाने वाले इन  कलाकारों में इतना दम नहीं रहा की बिना गालियों के इनकी फिल्मो को दर्शक नकार देगा? और गालिया दर्शको को फिल्मो तक ले जाने के लिए आवशयक हो गई है. अगर एसा है तो तारे जमीं पर, थ्री इदिट्स, पा या गुजारिश जसी फिल्मे दर्शको को क्यों पसंद आती है? इन सवालों के जवाब खोजना  अति आवश्यक है . क्या नो वन किल्ड जेसिका में गालिया नहीं बोली जाती तो फिल्म या उसकी कहानी पर कोई असर पड़ता ? शायद नहीं . मीडिया के साथ साथ सेंसर बोर्ड की भूमिका पर भी सवाल उठता है . यदि सेंसर बोर्ड अपनी  भूमिका व् दायित्वों के प्रति आँख मुंद कर बैठ गया है . रिअलिटी दिखाने के नाम पर कुछ भी दिखा सकता है. यदि सेंसर बोर्ड अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा रहा तो उसे ख़तम कर देना चाहिए . कम से कम एक बड़ा बज़ट तो सर्कार का बचेगा . और छोड़ देना चाहिए प्रोडूसरो पर व् मार्केट पर जो चाहे वो दिखाए और प्रस्तुत करे. समाज का क्या होगा ये समाज जाने और युवा पीडी का क्या होगा युवा जाने.............






No comments:

Post a Comment